समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे?
विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है।
एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े।
समय की बर्बादी शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गुण है। मन में जब तक इसके लिए रुचि, आकाँक्षा एवं उत्साह पैदा न होगा, जब तक इस हानि को मन हानि ही नहीं मानेगा तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 23